🙏 जय श्री माधव 🙏

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क्या भगवान सच में होते हैं ?

कृपया हिंदी में और सही लिखें, अधिकतम सीमा - 300 अक्षर
सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ॥
- कबीर ग्रंथावली (पृष्ठ 261)

यदि मैं सातों समुद्रों के जल की स्याही बना लूँ तथा समस्त वन समूहों की लेखनी कर लूँ, तथा सारी पृथ्वी को काग़ज़ कर लूँ, तब भी परमात्मा के गुण को लिखा नहीं जा सकता। क्योंकि वह परमात्मा अनंत गुणों से युक्त है।

हमारा ब्रह्मांड पंचमहाभूतों अथवा पांच तत्वों से बना है - आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी। इसका उल्लेख हिंदू धर्मग्रंथों में भी मिलता है।
भगवान शब्द भी इन्हीं का संयोजन है जो निम्न प्रकार है,

भ - भूमि (पृथ्वी)
ग - गगन (आकाश)
व - वायु (वायु)
आ - अग्नि (अग्नि)
न - नीर (जल)

श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.30)
श्री भगवान बोले – (हे चतुरानन!) मेरा जो ज्ञान परम गोप्य है, विज्ञान (अनुभव) से युक्त है और भक्ति के सहित है उसको और उसके साधन को मैं कहता हूँ, सुनो।

श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.31)
मेरे जितने स्वरुप हैं, जिस प्रकार मेरी सत्ता है और जो मेरे रूप, गुण, कर्म हैं, मेरी कृपा से तुम उसी प्रकार तत्त्व का विज्ञान हो।

श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.32)
सृष्टि के पूर्व केवल मैं ही था, मेरे अतिरिक्त जो स्थूल, सूक्ष्म या प्रकृति है – इनमें से कुछ भी न था, सृष्टि के पश्चात भी मैं ही था, जो यह जगत (दृश्यमान) है, यह भी मैं ही हूँ और प्रलयकाल में जो शेष रहता है वह भी मैं ही हूँ।

श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.33)
जिसके कारण आत्मा में वास्तविक अर्थ के न रहते हुए भी उसकी प्रतीति हो और अर्थ के रहते हुए भी उसकी प्रतीति न हो, उसी को मेरी माया जानो, जैसे आभास (एक चन्द्रमा में दो चन्द्रमा का भ्रमात्मक ज्ञान) और जैसे राहु (राहु जैसे ग्रह मण्डलों में स्थित होकर भी नहीं दिखाई पड़ता)।

श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.34)
जैसे पाँच महाभूत उच्चावच भौतिक पदार्थों में कार्य और कारण भाव से प्रविष्ट और अप्रविष्ट रहते हैं, उसी प्रकार मैं इन भौतिक पदार्थों में प्रविष्ट और अप्रविष्ट भी रहता हूँ (इस प्रकार मेरी सत्ता है)।

श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.35)
आत्म-तत्त्व को जानने की इच्छा रखने वालों के लिए केवल इतना ही जानने योग्य है कि सृष्टि के आरम्भ से सृष्टि के अन्त तक तीनों लोक (स्वर्गलोक, मृत्युलोक, नरकलोक) और तीनों काल (भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल) में सदैव एक समान रहता है, वही भगवान है।

श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.36)
चित्त की परम एकाग्रता से इस मत का अनुष्ठान करें, हे ब्रह्मा कल्प की विविध सृष्टियों में आपको कभी भी कर्तापन का अभिमान न होगा।
भगवान् स्वायम्भुव मनु ( भगवन ब्रह्मा जी के पुत्र ) ने समस्त कामनाओं और भोगों से विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया। वे अपनी पत्नी शतरूपा के साथ तपस्या करने के लिये वन में चले गये , उन्होंने सुनन्दा नदी के किनारे पृथ्वी पर एक पैर से खड़े रहकर सौ वर्ष तक घोर तपस्या की। तपस्या करते समय वे प्रतिदिन इस प्रकार भगवान्‌ की स्तुति करते थे।

मनुजी कहा करते थे-

श्रीमद् भागवत महापुराण (8.1.9)
जिनकी चेतना के स्पर्शमात्र से यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतना का दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जाने पर प्रलय में भी जागते रहते हैं, जिनको यह नहीं जान सकता, परन्तु जो इसे जानते हैं- वही परमात्मा हैं।

श्रीमद् भागवत महापुराण (8.1.10)
यह सम्पूर्ण विश्व और इस विश्व में रहने वाले समस्त चर-अचर प्राणी- सब उन परमात्मा से ही ओत प्रोत हैं। इसलिये संसार के किसी भी पदार्थ में मोह न करके उसका त्याग करते हुए ही जीवन-निर्वाह मात्र के लिये उपभोग करना चाहिये। तृष्णा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।
भला, ये संसार की सम्पत्तियाँ किसकी हैं?

श्रीमद् भागवत महापुराण (8.1.11)
भगवान् सबके साक्षी हैं। उन्हें बुद्धि-वृत्तियाँ या नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं। परन्तु उनकी ज्ञान शक्ति अखण्ड है। समस्त प्राणियों के हृदय में रहने वाले उन्हीं स्वयं प्रकाश असंग परमात्मा की शरण ग्रहण करो।

श्रीमद् भागवत महापुराण (8.1.12)
जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य तो होगा ही कहाँ से ? जिनका न कोई अपना है और न पराया और न बाहर है न भीतर, वे विश्व के आदि, अन्त, मध्य, अपने-पराये, बाहर और भीतर-सब कुछ हैं।

उन्हीं की सत्ता से विश्व की सत्ता है। वही अनन्त वास्तविक सत्य परब्रह्मा हैं।

जगन्नाथ संस्कृति, भविष्य मालिका एवं विभिन्न सनातन शास्त्रों के अनुसार कलियुग का अंत हो चुका है तथा 2032 से सत्ययुग की शुरुआत होगी।
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