प्रभु ने संसार क्यों बनाया ?

भगवान ने संसार को लीला, प्रेम, न्याय, और मोक्ष की प्रक्रिया के लिए रचा। यह संसार उनका ही विस्तार है और इसमें प्रत्येक आत्मा को ईश्वर से जुड़ने का अवसर प्राप्त होता है।
यह प्रश्न सरल दिखता है, लेकिन वास्तव में यह सनातन दर्शन का सबसे गहरा और रहस्यमय प्रश्न है।
"यदि भगवान पूर्ण हैं, सर्वशक्तिमान हैं, तो उन्होंने यह संसार — जिसमें जन्म, मरण, दुःख, आशा, मोह और माया है — क्यों रचा?"
आइए इसे शास्त्रों और आत्मानुभव के प्रकाश में चरणबद्ध समझते हैं।
1. परमात्मा पूर्ण हैं — फिर सृजन क्यों?
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥- ईशावास्य उपनिषद्
अर्थात — परमात्मा पूर्ण है। उससे जो यह सृष्टि (जगत) उत्पन्न हुई है, वह भी उसी पूर्णता से है। उस पूर्ण से यह पूर्ण सृष्टि निकली है, फिर भी परमात्मा की पूर्णता में कोई कमी नहीं आती।
ईश्वर पूर्ण, अखंड, आनंदस्वरूप हैं — उन्हें कुछ भी प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी सृष्टि प्रकट होती है — इसका कारण कोई अभाव नहीं, बल्कि स्वाभाविक लीलाशक्ति है।
2. ईश्वर की लीला — आनंद की अभिव्यक्ति
लोकवत्तु लीलाकैवल्यम्- ब्रम्हसूत्र (1.1.2)
अर्थात — ईश्वर ने यह सृष्टि लीला के लिए की है, जैसे कोई राजा या कलाकार खेल खेलता है।
ईश्वर ने यह संसार किसी आवश्यकता, दुख, या लाभ के लिए नहीं — बल्कि स्वतः की चेतना को विविध रूपों में देखने और अनुभव करने के लिए रचा है। जैसे एक समुद्र अपनी लहरों में बिखरता है और अंततः फिर से उन्हीं लहरों में समा जाता है — वैसे ही हम सभी एक ही चेतन सत्ता की अभिव्यक्तियाँ हैं, जो उसी में लौटने की यात्रा में हैं।
3. "एकोऽहम् बहुस्याम्" — ब्रम्ह की इच्छा
"एकोऽहम् बहुस्याम्।" (मैं एक था — मैं अनेक बनूँ।)- उपनिषद
ईश्वर ने स्वयं को अनेक जीवों, रूपों, भावनाओं, अनुभवों में प्रकट किया —
ताकि वह स्वयं को ही अनेक रूपों में देख सके।
4. क्या यह सब ‘दुख देना’ है प्रभु की लीला?
5. तो फिर मोक्ष क्या है?
"तत्त्वमसि" — तू वही है।
जब आत्मा देह, नाम, कर्म से ऊपर उठकर "मैं वही ब्रह्म हूँ" का अनुभव कर लेती है — वही मोक्ष है।
ईश्वर ने यह संसार हमारे पतन के लिए नहीं, बल्कि स्वरूप जागरण के लीला की प्रयोगशाला के रूप में रचा है।
6. लीला की आवश्यकता क्यों?
(i) व्यावहारिक दृष्टि से (जगत की दृष्टि):
(ii) मानसिक दृष्टि से (साधक की दृष्टि):
साधना करते हुए साधक देखता है कि –- दुःख, जन्म-मरण, अहंकार, वासना — सब "स्व-भ्रम" के कारण हैं।
- जैसे सपना देखते समय दुःख लगता है, लेकिन जागते ही मालूम चलता है – सब मन की रचना थी।
(iii) पारमार्थिक दृष्टि से (ब्रह्मदृष्टि):
"न जायते म्रियते वा कदाचित्..."- गीता 2.20
सब कुछ एक "आभास" है — ईश्वर ही स्वयं को "भूलने" और फिर "पाने" का अभिनय कर रहा है।
यही उसकी लीला है।
7. फिर ईश्वर यह कष्टदायक लीला क्यों करते हैं?
जैसे एक कलाकार रंगों में खुद को घोल देता है — वैसे ही ब्रम्ह यह जगत रचता है।जैसे लहरें समुद्र से निकलती हैं और वापस उसी में मिलती हैं — वैसे ही आत्मा का "अनुभव" होता है।
ईश्वर कोई "दूसरा" नहीं है जो हमें दुःख दे रहा है।
हम स्वयं वही हैं जो अद्वैत में दो बनकर अनुभव कर रहे हैं।
➡ जब तक हम "अहम् शरीर" में टिके हैं — दुःख है।
➡ जब हम "अहम् आत्मा" में जागते हैं — केवल आनंद है।
निष्कर्ष -
- सच्चाई: ईश्वर ने कुछ "बाहर" नहीं बनाया, यह सब उसी की चेतना की लहरें हैं
- उद्देश्य: स्वयं को अनेक रूपों में जानना और अनुभव करना
- लीला: यह सब आनंद की अभिव्यक्ति है, न कि अभाव की
- हमारा कार्य: इस संसार में अपने स्वरूप को पहचानना और मुक्त होना
- मोक्ष: स्मरण करना कि "मैं सदा से मुक्त था, हूँ और रहूँगा"
यत्र सर्वे इमे लयम् यान्ति तत् ब्रह्म...
"वह स्वयं को ही पुनः पा लेता है। यही लीला है।"