श्री भगवान को कौन नहीं जान सकता है?

न चास्य कश्चिन्निपुणेन धातु-
रवैति जन्तुः कुमनीष ऊतीः।
नामानि रूपाणि मनोवचोभिः
सन्तन्वतो नटचर्यामिवाज्ञः॥- श्रीमद् भागवत महापुराण (1.3.37)
जैसे अनजान मनुष्य जादूगर अथवा नट के संकल्प और वचनों से की हुई करामात को नहीं समझ पाता, वैसे ही अपने सत्य संकल्प और वेद वाणी के द्वारा भगवान के प्रकट किए हुए इन नाना नाम और रूपों को तथा उनकी लीलाओं को कुबुद्धि जीव बहुत सी तर्क युक्तियों के द्वारा नहीं पहचान सकता।
त्वयाहं तोषितः सम्यग् वेदगर्भ सिसृक्षया।
चिरं भृतेन तपसा दुस्तोषः कूटयोगिनाम्॥- श्रीमद् भागवत महापुराण (2.9.19)
श्री भगवान् ने कहा- ब्रह्माजी! तुम्हारे हृदय में तो समस्त वेदों का ज्ञान विद्यमान है। तुमने सृष्टि रचना की इच्छा से चिरकाल तक तपस्या करके मुझे भली भाँति सन्तुष्ट कर दिया है। मन में कपट रखकर योग साधन करने वाले मुझे कभी प्रसन्न नहीं कर सकते।
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
दुष्प्रापणाय गुणसङ्गविवर्जिताय।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय॥- श्रीमद् भागवत महापुराण (8.3.18)
जो लोग शरीर, पुत्र, गुरुजन, गृह, सम्पत्ति और स्वजनों में आसक्त हैं-उन्हें आपकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। क्योंकि आप स्वयं गुणों की आसक्ति से रहित हैं। जीवन्मुक्त पुरुष अपने हृदय में आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। उन सर्वेश्वर्यपूर्ण ज्ञानस्वरूप भगवान्को में नमस्कार करता हूँ।