भागवत महापुराण, महापुराण क्यों है? तथा इसकी रचना क्यों की गयी?

वेदों का विभाग, महाभारत महाकाव्य ग्रंथ की रचना और अष्टादश पुराण की रचना करने के बाद भी जब महर्षि वेद व्यास जी का मन अपूर्ण सा था।
तब देवर्षि नारद जी ने व्यास जी से उस अपूर्णता का कारण बताया कि आपने ऐसे ग्रंथ की रचना नहीं की जिसमें भगवान श्री कृष्ण की लीला गुण और अवतारों का चरित्र वर्णन हो।
और कलिगुग में मनुष्य की आयु भी कम होगी बुद्धि भी वेद और अन्य धर्म ग्रंथों, शास्त्रों को समझने में असमर्थ होगी।
इसलिए कलियुग के अल्प बुद्धि मानव के उद्धार के लिए व्यास जी ने श्रीमद् भागवद् महापुराण की रचना की।
तथा भगवान ने वचन दिया कि में स्वयं भागवत में सदा विराजमान रहूँगा।
यह तत्व आदि ब्रह्म सनातन से सृष्टि हुआ है । यह सभी वेद, पुराण और उपनिषद का सार तत्व है इसी लिए यह महापुराण है।
इस परम शास्त्र के नित्य पठन से अकाल मृत्यु, रोग, महामारी, शत्रु भय आदि नहीं रहता है और मनुष्य कलियुग में भी भगवत प्राप्ति कर परम गति, मुक्ति तक जा सकता है ।
यह श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय रहस्यात्मक पुराण है । यह भगवत्स्वरूप का अनुभव कराने वाला और समस्त वेदों का सार है।
संसार में फँसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लियेआध्यात्मिक तत्त्वों को प्रकाशित कराने वाला यह एक अद्वितीय दीपक है । वास्तव में उन्हीं पर करुणा करके बड़े-बड़े मुनियों के आचार्य श्री शुकदेवजी ने इसका वर्णन किया है । मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ।
भगवान् श्री कृष्ण के यश का श्रवण और कीर्तन दोंनो पवित्र करने वाले हैं । वे अपनी कथा सुनने वालों के हृदय में आकर स्थित हो जाते हैं और उनकी अशुभ वासनाओं को नष्ट कर देते हैं; क्योंकि वे संतों के नित्य सुहृद हैं।
जब श्रीमद्भागवत अथवा भगवद्भक्तों के निरन्तर सेवन से अशुभ वासनाएँ नष्ट हो
जाती हैं, तब पवित्र कीर्ति भगवान् श्री कृष्ण के प्रति स्थायी प्रेम की प्राप्ति होती है।
तब रजोगुण और तमोगुण के भाव - काम और लोभादि शान्त हो जाते हैं और चित्त इन से रहित होकर सत्त्वगुण में स्थित एवं निर्मल हो जाता है।
इस प्रकार भगवान् की प्रेममयी भक्ति से जब संसार की समस्त आसक्तियाँ मिट जाती हैं, हृदय आनन्द से भर जाता है, तब
भगवान् के तत्त्व का अनुभव अपने-आप हो जाता है।
हृदय में आत्मस्वरूप भगवान् का साक्षात्कार होते ही हृदय की ग्रन्थि टूट जाती है, सारे सन्देह मिट जाते हैं और कर्मबन्धन क्षीण हो जाता है।
इसी से बुद्धिमान् लोग नित्य-निरन्तर बड़े आनन्द से भगवान् श्री कृष्ण के प्रति प्रेम-भक्ति करते हैं, जिससे आत्मप्रसाद की प्राप्ति होती है।