दारूण (घोर) कलियुग क्या है?

पद्मपुराण उत्तरखंड और श्रीमद् भगवद् महात्म्य भक्ति नारद संवाद पहला अध्याय
जब भगवान श्री कृष्ण जी ने धरा धाम छोड़ा उसी समय से कलियुग आ गया था। और महाराज राजा परीक्षित के रहते उसका प्रभाव उतना अधिक नहीं था लेकिन जब राजा परीक्षित पर धाम को सिधार गए उसी समय से धीरे धीरे कलियुग ने अपना विस्तार शुरू किया।
कलियुग के मध्य समय लगभग 2500 वर्ष बीत जाने के पश्चात जब देवर्षि नारद जी पृथ्वी को श्रेष्ठ लोक समझकर आए तो उन्होंने देखा सनातन धर्म के सभी तीर्थ स्थल हरिद्वार, काशी, प्रयाग, द्वारिका, पुष्कर, रामेश्वरम, कुरुक्षेत्र, उज्जैन, मथुरा, आदि सभी तीर्थ स्थल विधर्मी अक्रांताओं के कब्ज़े में थे।
उसी समय सारे भारत भूमी में त्राहिमाम की स्थिति थी। घोर कलियुग ने क्रुर रूप धारण कर लिया था।
इंसान वेद मार्ग से च्युत हो गये थे। चारों ओर पाखंड का आडंबर था। सत्य, तप, सौच (बाहर भीतर की पवित्रता) दान, दया आदि कुछ भी नहीं बचा था।
साधु संत पाखंडी और लालची हो गए थे। बहुत अधिक संख्या में हिंदू मंदिर आक्रमण से नष्ट कर दिए गए थे। कलियुग के घोर प्रभाव से भक्ति लुप्त हो गई थी ज्ञान तथा वैराग्य जींर्ण हालत में थे।
तब नारद जी ने भक्ति माता से कहा यह दारुण (घोर) कलियुग है।
इस कारण इस समय पर सदाचार योग मार्ग तब आदि सब लुप्त हो गए हैं। श्रीमद् भागवत महात्म्य प्रथम अध्याय के अनुसार जिस समय देवर्षि नारद की भेंट भक्ति माता से हुई उसी समय कलियुग का मध्यकाल अर्थात घोर कलियुग चल रहा था।
जो लोग शास्त्रों के सार तत्व का ज्ञान न होने के कारण अज्ञानता वश कलियुग की अभी बाल्य अवस्था है ऐसा बोलते हैं, उन्हें सनातन धर्म ग्रंथों को अच्छे से अध्यन करना चाहिए। सभी सनातन धर्म प्रेमी सज्जनों को श्रीमद् भागवत महापुराण का नित्य पठन तथा त्रिकाल संध्या करना चाहिए जिससे हम सनातन के परम तत्व को जान सकें।