वर्ण व्यस्था क्यों बनाई गई? क्या जन्म से ही मनुष्य का वर्ण (जाती) निर्धारित हो जाती है? क्या सनातन धर्म में जातीय भेद भाव का वर्णन है?

श्रृष्टि को सुचारु रूप से संचालन के लिए वर्ण व्यवस्था बनाई गई।
श्रीमद् भागवत महापुराण (11.17.10) इस बात की पुष्टि करता है कि इस कल्प के प्रारंभ में सभी मनुष्य का 'हंस' नामक केवल एक ही वर्ण (जाती) था।
उस समय सभी लोग जन्म से ही कृतकृत्य अर्थात संतुष्ट थे। इसी लिए उस युग का एक नाम कृत युग भी है।
समय के साथ साथ वेदों का विभाग होने से कर्म रूप विभाग हुआ। ब्राह्मण भगवान के मुख, क्षत्रिय भगवान की भुजाएँ, वैश्य भगवान की जंघा और शुद्र भगवान के चरण माने गए हैं।
यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान देना और दान लेना ये ब्रह्मण के कर्म बताये गए हैं।
शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव अर्थात शासन करने की योग्यता ये क्षत्रिय के कर्म हैं।
खेती करना, गायों की रक्षा करना और शुद्ध व्यापार करना ये वैश्य के कर्म हैं।
अन्य सभी वर्णों की सेवा करना शुद्र के कर्म हैं।
भगवद् गीता (18.41)
भगवान बोलते हैं कि मनुष्य की वर्ण (जाती) जन्म से नहीं अपितु कर्म से निर्धारित होती है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि सनातन धर्म में कोई जाति भेद नहीं है। कालांतर में सनातन धर्म को ह्रास करने के उद्देश्य से जाती भेद भाव को प्राथमिकता दी गई।